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शनिदेव का मृत्युंजय स्तोत्र

किसी प्राणी का अमर होना तो असंभव है, किंतु मृत्युंजय स्तोत्र में किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु, अपमृत्यु पर विजय प्रधान करने की एक अलौकिक क्षमता मौजूद है। शारीरिक, मानसिक कष्टों के शमन का सर्वाधिकार प्राप्त कारक शनिदेव हैं। भक्तों के कल्याणार्थ मातेश्वरी पार्वती के आग्रह पर आशुतोष शिव जी ने इस स्तोत्र को सुनाया और कहा कि, इस शनि मृत्युंजय स्तोत्र के श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नियमानुसार पाठ करने से अनुष्ठान कर्ता शनिदेव का कृपा पात्र बनकर सभी आधि-व्याधियों से मुक्त हो जाता है। 

‘मृत्युंजय’ शब्द का सामान्य अर्थ मृत्यु पर विजय प्राप्त करना होता है। किसी प्राणी का अमर होना तो असंभव है, किंतु मृत्युंजय स्तोत्र में किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु, अपमृत्यु पर विजय प्रधान करने की एक अलौकिक क्षमता मौजूद है। शारीरिक, मानसिक कष्टों के शमन का सर्वाधिकार प्राप्त कारक शनिदेव हैं। भक्तों के कल्याणार्थ मातेश्वरी पार्वती के आग्रह पर आशुतोष शिव जी ने इस स्तोत्र को सुनाया और कहा कि, इस शनि मृत्युंजय स्तोत्र के श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नियमानुसार पाठ करने से अनुष्ठान कर्ता शनिदेव का कृपा पात्र बनकर सभी आधि-व्याधियों से मुक्त हो जाता है। वह सुख सम्पति, सन्तान सुख प्राप्त कर अकाल व अपमृत्यु से निर्भय रहता हुआ निष्पाप हो जाता है। अन्त में वह शनिदेव की कृपा से मोक्ष मार्ग का अनुगामी बन जाता है। आशा है, पीडि़त व्यक्ति इससे लाभ उठाने का सत्प्रयास करेंगे।
इससे केवल पारलौकिक ही नहीं ऐहिक सुख-सम्पत्ति विद्या, यश पारिवारिक सुख की प्राप्ति होती है। यदि नियम पूर्वक कम से कम 11 अथवा 11 पाठ विधान पूर्वक करें या विद्वानों से करवायें और यथाशक्ति हवन और ब्राह्मण भोजन करायें तो धन-धान्य, संतति एवं विजय प्राप्ति का सुअवसर मिलता है।
ॐ महाकाल शनैश्चराय नम:
नीलाद्रि शोभाञ्चित दिव्य मूर्ति: 
खड्गी त्रिदण्डी शरचाप  हस्त:।
शम्भूर्महाकाल   शनि  
पुरारिर्जयत्यशेषासुर  नाशकारी ।।१।।
नीले पर्वत जैसी शोभा वाले दिव्य मूर्ति, खड्गधरी, त्रिदंडी, धनुषवाण वाले साक्षात शम्भु, महाकाल, शनि, पुरारी अशेष तथा समस्त असुरों का नाश करने वाले वे देव (शिव) सद विजयी होते हैं।
मेरुपृष्ठे समासीनं सामरस्ये स्थितं शिवम्।
प्रणम्य शिरसा गौरी पृच्छतिस्म जगद्धितम् ।।२।।
सुमेर पर्वत के पृष्ठ में समासीन सामरस्य में स्थित जगत का हित करने वाले भगवान शिव को सिर झुकाकर प्रणाम करती हुई माता पार्वती ने पूछा।
पार्वत्युवाच 
भगवन! देवदेवेश! भक्तानुग्रहकारक!
अल्पमृत्युविनाशाय यत्त्वया पूर्व सूचितम् ।।३।।
तदेव त्वं महाबाहो ! लोकानां हितकारकम्।
तव मूर्ति प्रभेदस्य महाकालस्य साम्प्रतम् ।।४।।
पार्वती ने कहा -
हे भगवन्! देवाधिदेव! भक्तों पर अनुग्रह करने वाले! अल्प मृत्यु के शमन के लिए आपने जो पहले सूचित किया है, हे महाबाहो! वही लोकहित का कारक है। महाकाल की मूर्ति भेद ही प्रेरक है। 
शनेर्मृत्र्युञ्ञय-स्तोत्रं बू्रहि मे नेत्रजन्मन:।
अकाल मृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम्।।५।।
हे त्रिनेत्र! मुझे नेत्र से उत्पन्न शनि का मृत्युंजय स्तोत्र सुनाएं जो अकाल मृत्यु का हरण करता है तथा अपमृत्यु का निवारण करता है।
शनिमन्त्रप्रभेदा ये तैर्युक्तं यत्स्तवं शुभम्।
प्रतिनाम चतुथ्र्यन्तं नमोऽस्तु मनुनायुतम्।।६।।
शनि के मन्त्रों के जो भेद हैं, उनसे युक्त जो स्तव है, उस शुभदयक प्रत्येक (मनुयुक्त) नाम को चतुर्थी पर्यन्त मेरा नमस्कार है। 
श्रीश्वर उवाच
नित्ये प्रियतमे गौरि सर्वलोकोपकारकम्।
गुह्याद्गुह्यतमं दिव्यं सर्वलोकहितेरते।।७।।
श्री महेश्वर बोले -
समस्त लोक के कल्याण में परायण रहने वाली हे प्रिये! गौरि! यह शनि मृत्युंजय स्तोत्र अत्यधिक दिव्य और सब जनों का उपकार करने वाला है।
शनि मृत्युञ्ञयस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तवाऽधुना।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वशत्रु विमर्दनम्।।८।।
मैं तुमसे शनि मृत्युंजय स्तोत्र को अब कहता हूँ। वह स्तोत्र  सब मंगलों को करने वाला और सब शत्रुओं का दमन करने वाला है।
सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम्।
शरीरारोग्यकरणमायुर्वृद्धिकरं नृणाम्।।९।।
यह स्तोत्र सब मनुष्यों के रोगों का शमन करने वाला, आपत्तियों का निवारण करने वाला, शरीर को आरोग्य देने वाला और आयुवृृद्धि करने वाला है।
यदि भक्तासि मे गौरी गोपनीयं प्रयत्नत:।
गोपितं सर्वतन्त्रेषु तच्छृणुष्व महेश्वरी।।१०।।
हे गौरि! यदि मेरी भक्त हो तो हे शिवे ! सब तन्त्रों में गुप्त और प्रयत्न पूर्वक गोपनीय रखे जाने वाले उस स्तोत्र को सुनो। विनियोग:
ॐ अस्य श्रीमहाकालशनिमृत्युञ्ञयस्तोत्रमन्त्रस्य पिप्पलादऋषिरनुष्टुप् छन्दे महाकालशनिर्देवता श: बीजमायसी शक्ति कालपुरुषायेति कीलकं ममाकालाय मृत्युनिवारणार्थे पाठे विनियोग:।।
‘‘ॐ अस्य............... पाठे विनियोग’ मंत्र से दायें हाथ में जल लेकर उक्त मन्त्र पढक़र जल नीचे छोड़ें।
‘ऋषिन्यासं करन्यासं देहन्यासं समाचरेत्।
महोगं मूधिर्न विन्यस्य मुखे वैवस्वतं न्यसेत् ।।११।।
तब ‘षिन्यास, करन्यास, देहन्यास की क्रियायें करें। सिर पर महो’ का न्यास करके मुख में वैवस्वत का न्यास करें।
हृदि न्यसेत्तमहाकालं गुह्ये कृशतनुं न्यसेत्।
जान्वोस्तूडुचरं न्यस्य पादयोस्तु शनैश्चरम् ।।१२।।
हृदय में महाकाल का न्यास करें, गुह्य इन्द्रिय में कृशतनु का न्यास करें। जाँघों में नक्षत्रचारी और पैरों में शनैश्चर का न्यास करना चाहिये।
गले तु विन्यसेन्मन्दं बाह्वोर्महाग्रहं न्यसेत्।
एवं न्यासविधिं कृत्वा पश्चात कालात्मन: शने: ।।१३।।
गले में मन्द का विन्यास करें व भुजाओं में महाग्रह का न्यास करें। इस प्रकार न्यास विधि सम्पन्न करने के बाद में कालात्मा शनि का (ध्यान करें)।
न्यास ध्यानं प्रवक्ष्यामि तनौ ध्यात्वा महेश्वरम्।
कल्पादियुगभेदांश्च कराङ्गन्यासरूपिण: ।।१४।।
शरीर में (हृदय में) महेश्वर का ध्यान कर न्यासध्यान को बताता हूं। करांगन्यास रूप से उसके भी कल्पादि के अनुसार भेद हैं।
कालात्मनो न्येसद् गात्रे मृत्युञ्ञय! नमोऽस्तु ते।
मन्वन्तराणि सर्वांगे महाकालस्वरूपिण:।।१५।।
मृत्युंजय नाम से नमस्कार करते हुए कालात्मा शनि का शरीर में ध्यान करना चाहिए। वह महाकाल रूपी शनि सब मन्वंतरों में व्याप्त सर्वांग में न्यास करें। 
भावयेत्प्रीति प्रत्यंङ्गे महाकालाय ते नम:।
भावयेत्प्रभवाद्याब्दान् शीर्षे कालजिते नम:।।१६।।
अत: महाकाल शनि की ही प्रीतिपूर्वक प्रत्येक अंग में भावना करनी चाहिए तथा प्रभवादि वर्षों की भावना शिर में करता हुआ उन कालजित को नमन करें।
नमस्ते नित्यसेव्याय विन्यसेदयने भ्रुवो:।
सौरये च नमस्तेतु गण्डस्थलयोर्विन्यसेत् ।।१७।।
भ्रुवों में नित्यसेवनीय देव रूप उन देव को नमस्कार है, इस प्रकार न्यास करें। हे सौरि! आपको नमस्कार है, इस प्रकार गन्डस्थलों (कपोलों) में न्यास करें।
नमो वै दुर्निशच्र्याय चाश्विनं विन्यसेन्मुखे।
नमो नीलमयूखाय ग्रीवायां कार्तिकं न्यसेत् ।।१८।।
क्रूर स्वामी रूपी (शनि) को नमस्कार है - इस प्रकार मुख में आश्विन का न्यास करें। नीले किरणों वाले आपको नमस्कार है - इस प्रकार ग्रीवा (कण्ठ) में कार्तिक का विन्यास करना चाहिए।
मार्गशीर्ष न्यसेद्बाह्वोर्महारौद्राय ते मन:।
उध्र्वलोकनिवासाय पौषं तु हृदये न्यसेत् ।।१९।।
हे महारौद्र, आपको नमस्कार है - इस प्रकार भुजाओं में मार्गशीर्ष का विन्यास करें। उध्र्वलोकवासी (आपको नमस्कार है) - इस प्रकार हृदय में पौष को धारण करें।
नम: कालप्रबोधाय माघं वै चोदरेन्यसेत्।
मन्दगाय नमो मेढ्रे न्यसेद्वै फाल्गुनं तथा ।।२०।।
‘श्री कालबोधय नम:’ कहकर उदर में माघ को न्यास करें। ‘श्री मन्दगाय नम:’ कहकर लिंग में फाल्गुन का विन्यास करें। ऊर्वोन्र्यसेगौत्रमासं नम: शिवोऋताय च।
वैशाखं विन्यसेज्जान्वोर्नम: संवत्र्तकाय च ।।२१।।
‘ॐ शिवोऋताय नम:’ मन्त्र से जंघाओं के ऊपरी भाग में चैत्रमास का न्यास करें। ‘संवर्तकाय नम:’ मन्त्र से वैशाख का घुटनों में विन्यास करना चाहिए।
जंघयोभावयेज्ज्येष्ठं भैरवाय नमस्तथा।
आषाढ़ं पाद्योश्चैव शनये च नमस्तथा ।।२२।।
‘भैरवाय नम:’ मंत्र से जाँघों में ज्येष्ठ का न्यास करें तथा ‘शनये नम:’ से पैरों में आषाढ़ का न्यास करना चाहिये।
कृष्णपक्षं च क्रूराय नम: आपादमस्तके।
न्यसेदाशीर्ष पादान्ते शुक्लपक्षं ग्रहाय च ।।२३।।
‘क्रूराय नम:’ मंत्र से पैरों से लेकर मस्तक में कृष्ण पक्ष और ‘ग्रहाय नम:’ से मस्तक से लेकर पैरो तक शुक्ल पक्ष का 
न्यास करें।
न्यसेन्मूलं पादयोश्च ग्रहाय शनये नम:।
नम: सर्वजिते चैव तोयं सर्वाङ्गुलौ न्यसेत् ।।२४।।
पुन: ‘शनये नम:’ से पैरों में मूल का न्यास करें तथा ‘सर्वजिते नम:’ मन्त्र से अँगुलियों में जल का न्यास करना चाहिए।
न्यसेद्गुल्फद्वये विश्वं नम: शुष्कतराय च।
विष्णुं भावयेज्जंघोभये शिष्टतमाय ते ।।२५।।
‘शुष्कतराय नम:’ द्वारा दोनों गुल्फों में सम्पूर्ण विश्व का न्यास तथा पुन: दोनों जंघाओं में अत्यन्तशिष्ट विष्णु की भावना करें।
जानुद्वये धनिष्ठां च न्यसेत् कृष्णारूचे नम:।
पूर्वभाद्रपदां चैव करालाय नमस्तथा ।।२६।।
उसी प्रकार पुन: दोनों घुटनों में ‘कृष्णारुचे नम:’ मन्त्र से धनिष्ठा का न्यास करना चाहिये तथा ‘करालाय नम:’ मन्त्र द्वारा पूर्वा भाद्रपद का न्यास करना चाहिये।
उरूद्वये वारूणंच न्यसेत्कालभृते नम:।
पृष्ठेउत्तरभाद्रपदां च करालाय नमस्तथा ।।२७।।
फिर देनों जांघों के ऊपर भाग में ‘कालभृते नम:’ मंत्र से शतभिषा का न्यास करना चाहिए और ‘करालाय नम:’ मंत्र से पीठ पर उत्तर भाद्रपद का न्यास करना चाहिए।
रेवतीं च न्यसेन्नाभौ नमो मन्दचराय च।
गर्भदेशे न्येसेन्नाभो नमो श्यामतराय च ।।२८।।
‘मन्दचराय नम:’ से रेवती का नाभि में न्यास तथा ‘श्यामतराय नम:’ मन्त्र से गर्भ देश (स्थान) में अश्विनी का न्यास करें।।२८।।
नमो भोगिस्रजे नित्यं यमं स्तनयुगे न्यसेत्।
न्यसेत्कृतिका हृदये नमस्तैल प्रियाय च ।।२९।।
‘भोगिस्रजे नम:’ - इस मन्त्र से स्तनद्वय में यम (भरणी) को तथा हृदय में ‘तैलप्रियाय नम:’ से कृतिका का विन्यास करें।
रोहिणीं भावयेद्धस्ते नमस्ते खड्गधारिणे।
मृगं न्यसेद्वामहस्ते त्रिदण्डोल्लासिताय च ।।३०।।
‘खड्गधारिणे नम:’ से हाथ में रोहिणी की तथा ‘त्रिदण्डोल्लासिताय नम:’ मन्त्र से वामहस्त में मृगशिरा (मृग) की धारणा करें।
दक्षोद्ध्र्व े भावयेद्रार्दं नमो वै बाणधारिणे।
पुनर्वसुमूधर्ववामे नमो वै बाणधारिणे ।।३१।।
पुन: ‘बाणधारिणे नम:’ मन्त्र से दक्षिण स्कन्ध पर आद्र्रा नक्षत्र की धारणा तथा इसी से पुन: पुनर्वसु की धरणा करनी चाहिए।
पुष्यं चं न्यसेद्वाहौ नमस्ते हर मन्यवे।
सार्पं न्यसेद्वामबाहौ चोग्रचापाय ते नम: ।।३२।।
‘हर मन्यवे नम:’ कहकर बाहु में पुष्य की धरणा करें तथा वाम बाहु में आश्लेषा (सार्पं) का ‘उग्रचापाय नम:’ से न्यास करें।
मघां विभावयेत्कण्ठे नमस्ते भस्मधारिणे।
मुखे न्यसेद्भगर्चं नम: क्रूरग्रहाय च ।।३३।।
कण्ठ में ‘भस्मधरिणें नम:’ से मघा नक्षत्र की भावना करें तथा मुख में ‘क्रूरग्रहाय नम:’ से भगर्च (पूर्वाफाल्गुनी) का न्यास करें।
भावयेद्दक्षनासायामर्यमाणश्व योगिने।
भावयेद्वामनासायां हस्तज्ञ धारिणे नम: ।।३४।।
‘योगिने नम:’ से दक्षिण नासिका में उत्तराफाल्गुनी का न्यास करें तथा वाम नासिका में ‘धारिणे नम:’ मन्त्र से हस्त नक्षत्र का न्यास करें।
त्वाष्ट्रं न्यसेद्दक्षकर्णे नमो ब्रह्मणाय ते।
विशाखां च दक्षनेत्रे नमस्ते ज्ञानदृष्टये ।।३५।।
‘ब्रह्मणाय नम:’ मंत्र से चित्रा का दक्षकर्ण में न्यास करें तथा दक्षनेत्र में ‘ज्ञान दृष्टये नम:’ मन्त्र से विशाखा का न्यास करना चाहिये।
विष्कुम्भं भावयेच्छीर्षसन्धौ कालाय ते नम:।
प्रीतियोगं भ्रुवो: सन्धौ महामन्द ! नमोस्तुते ।।३६।।
‘कालाय नम:’ मंत्र से शीर्ष सन्धि में विष्कुंभ का न्यास और भ्रुवों की संधि में प्रीतियो’ का ‘महामन्दय नम:’ से न्यास करें।
नेत्रयो: सन्धावायुष्मानयोगं भीष्माय ते नम:।
सौभाग्यं भावयेन्नासासन्धौ फलाशनाय च ।।३७।।
नेत्रों की संधि में ‘भीष्माय नम:’ मंत्र से आयुष्मान् योग की तथा ‘फलाशनाय नम:’ से नासिका की संधि में सौभाग्य की धारणा करें।
शोभनं भावयेत्कर्णो सन्धौ पुण्यात्मने नम:।
नम: कृष्णायातिगण्डं हनुसन्धौ विभावयेत् ।।३८।।
कर्ण सन्धि में शोभन का ‘पुण्यात्मने नम:’ मन्त्र से भावना करें और ठोडी की संधि में ‘ॐ कृष्णाय नम:’ से अतिगण्ड योग की धारणा करें।
नमो निर्मांसदेहाय सुकर्माणं शिरोधिरे।
धृतिं न्यसेद्वातौ पृष्ठे छायासुताय च ।।३९।।
‘निर्मांस देहाय नम:’ मन्त्र से सुकर्म यो’ की सिर में धारणा करें और ‘छायासुताय नम:’ मन्त्र से दोनों पीठ भागों में धृति का न्यास करना चािहये।
तन्मूलसन्धौ शूलं च न्यसेद्दग्राय ते नम:।
तत्कूर्प:न्यसेद्गण्डं नित्याननाय ते नम: ।।४०।।
‘ॐ अग्राय नम:’ से मूल सन्धि में शूल योग का न्यास करें तथा भौंहों के बीच वाले स्थान में ‘नित्याननाय नम:’ मन्त्र से गण्ड योग का न्यास करना चाहिये। हर्षण तन्मूलसन्धौ भूतसन्तापिने नम:।
तत्कूर्पर न्यसेद्वज्र: सानन्दय नमोस्तुते ।।४१।।
‘भूत सन्तापिने नम:’ मंत्र से मूलसन्धि में ही हर्षण योग का तथा ‘आनन्दय नम:’ से कुहनियों में वज्र योग का न्यास करें।
सिद्धिं तन्मणिबन्धे च न्यसेत् कालाग्नये नम:।
व्यतिपातं कराग्रेषु न्यसेत्कालकृते नम: ।।४२।।
‘कालाग्नये नम:’ कहकर मणिबन्ध में सिद्धि योग तथा कराग्र में व्यतिपात योग की ‘कालकृते नम:’ से भावना करें।
वरीयांसं दक्षपाश्र्वसन्धौ कालात्मने नम:।
परिघं भावयेद्वामपाश्र्वसन्धौ नमोस्तु ते ।।४३।।
‘कालात्मने नम:’ मन्त्र से दक्षपाश्र्व सन्धि स्थान में वरीयान् योग की तथा वामपाश्र्वसन्धि में उसी मन्त्र से परिघ योग का न्यास करें।
न्यसेद्दक्षोरसन्धौ च शिवं वै कालसाक्षिणे।
तज्जानौ भावयेत्सिद्धिं महादेहाय ते नम: ।।४४।।
आंखों की संधि में शिव योग को ‘कालसाक्षिणे नम:’ म़न्त्र से तथा ‘महादेहाय नम:’ से घुटनों में सिद्धि योग की भावना करें।
साध्यं न्यसेच्च तद्गुल्फसन्धौ घोराय ते नम:।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ शुभं रौद्राय ते नम: ।।४५।।
गुल्फ सन्धि में ‘घोराय नम:’ से साध्य की तथा अँगुलियों की सन्धि में शुभ योग की ‘रौद्राय नम:’ मंत्र से धारणा करें।
न्यसेद्वामोरुसन्धौ च शुक्लकालविदे नम:।
ब्रह्मयोगं च तज्जानौ न्यसेत्सुयोगिने नम: ।।४६।।
बायीं जांघ के जोड़ों में शुक्ल योग की ‘कालविदे नम:’ मन्त्र से तथा घुटनों में ‘सुयोगिने नम:’ मंत्र से ब्रह्म योग की धारणा करें।
ऐन्द्रं तदगुल्फसन्धौ च योगाधीशाय ते नम:।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ नमो: भव्याय वैधृतिम् ।।४७।।
उसी प्रकार गुल्फ सन्धि में ‘योगाधीशाय नम:’ मन्त्र से ऐन्द्र योग की तथा अंगुलियों की संन्धि में ही वैधृति का ‘भव्याय नम:’ मन्त्र से न्यास करें।
चर्मणे बवकरणं च भावयेद्यज्वते नम:।
वालवं भावयेद्रकते नाभौ भव्याय वैधृति ।।४८।।
गयज्वते नम:’ मन्त्र से चर्म में बव करण की भावना करें तथा ‘भव्याय नम:’ से रक्त में वालव योग और नाभि में वैधृति योग की धरणा करें।
कौलवं भावयेदस्थिन नमस्ते सर्वभक्षिणे।
तैतिलं भावयेन्मांसे आममांसिप्रियाय ते ।।४९।।
‘सर्वभक्षिणे नम:’ से अस्थियों में कौलव की धारणा करें। मांस में तैतिल की ‘आममांसिप्रियाय नम:’ से भावना करें।
गर न्यसेद्वसायं च सर्वग्रासाय ते नम:।
न्यसेद्वणिकू मज्जायां सर्वान्तक! नमोस्तुते ।।५०।।
वसा में गर करण की ‘सर्वग्रासाय नम:’ से धारणा करें तथा मज्जा में वणिक् करण की ‘सर्वान्तकाय नम:’ मन्त्र से भावना करे। वीर्येभावयेद्विष्टि नमो मन्यूग्रतेजसे।
रूद्रमित्रं पितृवसुवारीयैतांश्च पञ्च च ।।५१।।
वीर्य में ‘मन्यूग्रतेजसे नम:’ मन्त्र से विष्टि योग की और रुद्र, सूर्य, पितर, वसु, और वारि इन पाँचों की भी भावना करनी चाहिये।
मुहूर्ताश्च दक्षपादनखेषु भावयेन्नम:।
पुरूहूताँश्च वामपादनखेषु भावयेन्नम:।।५२।।
दक्षिण चरण नखों में मुहूर्तों की भावना करें तथा वाम चरण नखों में पुरुहूतों (देवों) की धारणा करें।
सत्यव्रताय सत्याय नित्यसत्याय ते नम:।
सिद्धेश्वर! नमस्तुभ्यं योगेश्वर ! नमोस्तुते ।।५३।।
सत्यव्रत, सत्यस्वरूप, नित्यशाश्वत आपको नमस्कार है। हे सिद्धेश्वर! आपको नमस्कार है। हे योगेश! बार-बार नमस्कार है।
वाह्निनक्तं चरांश्चैव वरुणोयमयोनिकान्।
मूहुर्तांश्च दक्षहस्तनखेषु भावयेन्नम: ।।५४।।
वह्निरूपचरों वायु, वरुण, यम तत्वों और काल की दक्षिण हाथ के नखों में भावना करनी चािहये।
लग्नोदयाय दीर्घाय मार्गिणे दक्षदृष्टये।
वक्राय चातिक्रूराय  नमस्ते वामदृष्टये ।।५५।।
लग्नोदय, दीर्घ, मार्गी, दक्षदृष्टि, वक्र, अतिक्रूर, वामदृष्टि (आदि नामों से प्रसिद्ध) देव शनि को प्रणाम है।
वामहस्तनखेष्वन्त: वर्णेशाय नमोऽस्तुते।
गिरिशाहिर्बुधन्यपूषा पाद्दस्रांश्च भावयेत् ।।५६।।
वामहस्त, नखेश, अन्त:वर्ण, ईश आपको प्रणाम है। गिरीश, अहिर्बुध्न्य, पूषा और अश्विनी के चरण की जप पूर्वक भावना करनी चाहिये।
राशिभोक्ते राशिगाय राशिभ्रमणकारिणे।
राशिनाथाय राशीनां फलदात्रे नमोस्तुते ।।५७।।
राशिभुक्त, राशिग, राशिभ्रमणकारी और राशियों के नाथ और राशिफल दाता नामों वाले आपको नमस्कार है।
यमाग्निचन्द्रादितिकविधतृश्च विभावयेत्।
ऊध्र्वहस्तदक्षनखेष्वन्यत्कालाय ते नम: ।।५८।।
यम, अग्नि, चन्द्र, अदिति, कवि, धाता आदि की उध्र्व हस्त, दक्षिण नखों में ‘अन्यत् कालाय नम:’ मन्त्र से भी धारणा करनी चाहिये।
तुलोच्चस्थाय सौम्याय नक्रकुम्भगृहाय च।
समीरत्वष्ट्जीवांश विष्णु तिग्म धुतोन्यसेत् ।।५९।।
तुला में उच्चस्थ और मकर-कुंभ राशियों में सौम्य रहने वाले समीर रूप, अष्ट जीवांश, विष्णु, तिर्यक् और उन्मत्त की भावना करनी चाहिये।
ऊध्र्ववामहस्तेष्वन्यग्रह निवारिणे।
तुष्टाय च वरिष्ठाय नमो राहुसखाय च ।।६०।।
उध्र्व वाम हस्त में अन्य ग्रहों का स्वरूप निवारण करने वाले हेतु राहु के सखा, संतुष्ट, वरिष्ठ आपको नमस्कार है - मंत्र से नमन करें। रविवारं ललाटे च न्यसेद्भीमदृशे नम:।
सोमवारं न्यसेच्छान्ते नमो जीवस्वरूपिणे ।।६१।।
ललाट में ‘भीमदृशे नम:’ मंत्र से रविवार को और सोमवार में ‘जीवस्वरूपिणे शान्ति नम:’ मन्त्र से न्यास करें।
भौमवारं गुरु न्यसेत्साच्छान्ते नमो मृतप्रियाय च।
मैदे न्यसेत्सौम्यवारं नमो जीवस्वरूपिणे ।।६२।।
भौमवार और महान शान्त रूप ‘मृतप्रियाय नम:’ मन्त्र से न्यास करना चाहिये तथा बुधवार को मेदा में स्थिति ‘जीवस्वरूपिणे नम:’ से न्यास करें।
वृषणे गुरुवारं च नमो मन्त्रस्वरूपिणे।
भृगुवारं मलद्वारे नम: प्रलयकारिणे ।।६३।।
गुरुवार को वृषण स्थान में ‘मन्त्रस्वरूपिणे नम:’ से और भृगुवार को मलद्वार में ‘प्रलयकारिणे नम:’ मंत्र से न्यास करें।
पादयो शनिवारं च निर्मांसाय नमोस्तुते।
घटिकां न्यसेत्केशेषु नमस्ते सूक्ष्मरूपिणे ।।६४।।
‘निर्मांसाय नमो’ से पादें में शनिवार के दिन और  ‘सूक्ष्मरूपिणे नम:’ मन्त्र से केशों में घटिका का न्यास करना चाहिये।
कालरूप! नमस्ते तु सर्वपापप्रणाशक।
त्रिपुरस्य वधार्थाय शम्भू जाताय ते नम: ।।६५।।
हे कालरूप! हे सर्वपापविनाशक! आपको नमस्कार है। त्रिपुर के वध के लिए शम्भू बनने वाले आपको नमस्कार है।
नम: कालशरीराय काल पुत्राय ते नम:।
कालहेतो! नमस्तुभ्यं कालनन्दाय ते नम: ।।६६।।
साक्षात् काल शरीर आपको नमस्कार है। हे काल के हेतुभूत! आपको नमन है। कालपुत्र! आपको नमस्कार है।
अखण्डदण्डमानाय त्वनाद्यन्ताय वै नम:।
कालदेवाय कालाय कालकालाय ते नम: ।।६७।।
हे अखण्डदण्डधारी, आदि-अन्त रूप आपको नमस्कार है। कालदेव, कालों के भी महाकाल आपको नमस्कार है।
निमेषादिमहाकल्पकालरूपं च भैरवम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।६८।।
जो निमेष, आदिमहाकल्प, कालरूप भैरव हैं, मृत्युंजय, महाकाल और शनैश्चर हैं, मैं प्रणाम करता हूँ।
दातारं सर्व भव्यानां भक्तानामभयकरम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।६९।।
सब ऐश्वर्यो के दता, भक्तों के भय को नष्ट करने वाले या अभय करने वाले मत्युंजय, महाकाल, शनैश्चर को मैं प्रणाम करता हूँ।
कत्र्तारं सर्वदु:खानां दुष्टानां भयवर्धनम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७०।।
दुष्टों के लिए सब दु:खों के कर्ता और भयवर्धन करने वाले मृत्युंजय, महाकाल, शनैश्चर देव को मैं प्रणाम करता हूँ। इत्तरिं ग्रहजातानां फलानामधिकारिणाम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७१।।
ग्रह जातकों के पाप फलों के अधिकारी, मृत्युंजय महाकाल, शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
सर्वेषामेव भूतानां सुखदं शान्तिभव्ययम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७२।।
सब प्राणियों के लिए सुखदयक, शान्तिदयक भव्य मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
कारणं सुखदु:खानां भावाऽभावस्वरूपिणाम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७३।।
भाव अभाव रूपी सुख दुखों के कारण, मृत्युंजय, महाकाल शनैश्चरदेव को मैं नमन करता हूँ।
अकालमृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७४।।
अकाल मृत्यु का हरण करने वाले, अपमृत्यु का निवारण करने वाले मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
कालरूपेण संसार भक्षयन्त महाग्रहम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्।।७५।।
कालरूप से संसार का भक्षण करने वाले महाग्रह मृत्युंजय महाकाल, शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
दुर्निरीक्ष्यं स्थूलरोमं भीषणं दीर्घ लोचनम्।
मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्।।७६।।
देखने में भयंकर, बहुत लम्बे और मोटे रोम वाले भीषण, दीर्घ लोचन, मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हू।
कालस्य वशभा: सर्वे न काल: कस्यचिद्वश:।
तस्मात्त्वां कालपुरुषं प्रणतोऽस्मि शनैश्चरम् ।।७७।।
काल के वश में सब जन हैं, काल किसी के वश में नहीं है। ऐसे उन कालपुरुष शनिदेव को मैं नमन करता हूँ।
कालादेव जगस्सर्व काल एव विलीयते।
कालरूप: स्वयं शम्भु कालात्मा ग्रह देवता ।।७८।। 
काल से ही सारा जग है और काल में ही विलीन हो जाता है। स्वयं शंकर भी काल रूप हैं। ग्रह देवता सब काल आत्मा हैं।
चण्डीशो रूद्रडाकिन्याक्रान्त चण्डीश उच्यते।
विद्युदाकलितो नद्यां समारूढ़ो रसाधिप: ।।७९।।
चंडीश, रुद्र, डाकिनी से आक्रान्त होने पर चंडीश कहा जाता है।
चण्डीश: शुकसंयुक्तो जिह्वया ललित पुन:।
क्षतजस्तामसी शोभी स्थिरात्मा विद्युता युत:।।८०।।
चंडीश शुक से संयुक्त होकर जिह्वा से सुन्दर हो जाता है। इन चंडीश के क्षतज, तामसी, शोभी, स्थिरात्मा, विद्युत युक्त आदि अनेक नाम हैं नमोनन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकर: शिवे।
आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुने जपेन्नर:।।८१।।
हे शिवे, यह शनि सन्तुष्टिकारक है। आदि से अन्त तक एक सौ आठ नाम वाले इन मनु रूप शनि देव का निरन्तर जप करना चाहिये।
य: पठेच्छृणुयाद्वापि ध्यात्वा सम्पूज्य भक्तित:।
तस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये।।८२।।
जो भक्ति पूर्वक ध्यान-पूजा करके इस स्तोत्र को पढ़ता है या सुनता है। हे प्रिये ! उसे यह मृत्युभय सौ वर्ष तक भी नहीं होता है।
ज्वरा: सर्वे विनश्यंति दद्रु-विस्फोटकच्छुका।
दिवा सौरि स्मरेत् रात्रौ महाकालं यजन पठेत् ।।८३।।
सब ज्वर, दर्द, फोड़े इससे विनष्ट हो जाते हैं। दिन में सौरि शनि का स्मरण करें और रात्रि में महाकाल का पूजन करें।
जन्मांगे च यद सौरिर्जपेदेतत्सहस्रकम्।
वेधगे वामवेधे वा जपेदद्र्धसहाकम्।।८४।।
जब शनि जन्मांग में चलता है तो एक सहा, यदि वेध करता है या वामवेध में है तो आधा सह जप करते रहना चाहिये।
द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टेऽपि वा।
तत्तद्राशौ भवेद्यावत् पठेत्तावद्दिनावधि।।८५।।
द्वितीय व द्वादश भावस्थ होने या मन्द होने पर या तनु (प्रथम) स्थान में या अष्टम भाव में होने पर यह जब तक उन राशियों में रहता है, उस अवधि तक यह पढ़ते रहना चाहिये।
चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवमे तथा।
गोचरे जन्मलग्नेशो दशास्वान्तर्दशाषु च ।।८६।।
गुरूलाघवज्ञानेन पठेत्तावदिनावधि।
शतमेकं त्रयं वाच शतयुग्मं कदाचन ।।८७।।
चतुर्थ में, दशम में, सप्तम में नवम तथा गोचर में जन्म लग्नेश होने पर या अन्तर्दशा में हो, अधिक, कम ज्ञान से जैसे भी हो, उस अवधि के बीतने तक इस स्तोत्र को यथाशक्ति एक सौ, तीन सौ या दो सौ पाठ करना चाहिये।
आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत।
महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ।।८८।।
पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे।
नियमेवैकमत्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ।।८९।।
श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम्।
परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयांभिधम् ।।९०।।
जो इस पाठ का जप करता है उसकी आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। पाप नष्ट हो जाते हैं और जय भी होती है। महाकाल के मन्दिर में सिद्ध पीठ में या जल तीर्थ सरोवर में, पुण्य स्थान में, अश्वत्थ मूल में, घर द्वार पर तेल का घड़ा रखकर गृह में नियम से, एकमन से, ब्रह्मचर्य पूर्वक मौन से साधकों को यह सुखकारक स्तोत्र सुनना और पढऩा चाहिए। परम कल्याणकारी यह स्तोत्र मृत्युंजय सूचक है। कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम्।
प्रात:काले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ।।९१।।
पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम्।
नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ।।९२।।
यह समयानुसार कहा गया, न्यासक्रम से समन्वित है। इसे प्रात:काल या सायंकाल पाठ करने से न अग्नि, न जल, न वायु, न देश और न विदेश में ही भय होता है।
नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत्।
आयुर्वर्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविन ।।९३।।
न ही अकाल मरण और न अपमृत्यु ही उनकी होती है। वे जन सौ वर्ष की आयु वाले चिरंजीवी होते हैं।
नात: परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत्।
शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम् ।।९४।।
इसके जैसा अन्य कोई स्तोत्र शनि को प्रसन्न करने वाला नहीं है। यह शान्तिदायक, शीघ्र फलदयक स्तोत्र मैंने कहा है।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छयात्मनो हितम्।
कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित् ।।९५।।
इस प्रकार सब प्रयत्न से यदि आत्म कल्याण चाहते हो, तो हे महादेवी ! यह किसी अभक्त से कथनीय नहीं है।
इति मार्तण्डभैरवतन्त्रे महाकालशनिमृत्युञ्जय स्तोत्रं सम्पूर्णम्।