गजेंद्र स्तोत्र का वर्णन हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रंथ “श्रीमद्भगवद गीता” के तीसरे अध्याय में मिलता है। इस स्तोत्र में कुल 33 श्लोक दिए गए हैं, इनका जाप या पाठ करना ख़ासा महत्वपूर्ण माना गया है। इस स्तोत्र में एक हाथी का मगरमच्छ के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। हिन्दू धर्म को मानने वाले इस प्रमुख स्तोत्र का जाप जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियों से तत्काल मुक्ति के लिए करते हैं। आज इस लेख के माध्यम से हम आपको गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से जुड़ी महत्वपूर्ण तथ्यों और साथ ही उसके हिंदी अर्थ एवं लाभों के बारे में भी बताने जा रहे हैं।
कैसे हुई गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति
सबसे पहले यह जान लेना बेहद आवश्यक है कि आखिर गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई कैसे। इस संदर्भ में हम यहाँ एक पौराणिक कथा का जिक्र करने जा रहे हैं जिसमें इस स्तोत्र की उत्पत्ति का जिक्र मिलता है। एक बार की बात है हाथियों के राजा गजेंद्र अपने समूह के साथ घूमने निकले थे और इसी दौरान उन्हें जोर की प्यास लगी। अपनी प्यास बुझाने के लिए वो एक विशाल तालाब के तट पर पहुंचे और वहाँ जल ग्रहण किया। इसके बाद उस तालाब में मौजूद कमल के फूलों की खुशबु से मंत्रमुग्द होकर वो सरोवर में जल क्रीडा के लिए उतर गया। इसी तालाब में मौजूद एक मगरमच्छ (जिसे ग्राह भी कहते हैं) ने गजेंद्र यानी उस हाथी का एक पैर दबोच लिया। गजेंद्र को जब दर्द का एहसास हुआ तो पहले उसने मगरमच्छ से अपने आप को छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसके सभी प्रयास असफल रहे। इस बीच मौजूद अन्य हाथियों ने भी गजेंद्र को ग्राह के चंगुल से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया लेकिन सभी उसमें नाकामयाब रहे। काफी समय बीत जाने के बाद गजेंद्र की सारी शक्तियां जब यथावत रह गयी तो उसने मोक्ष प्राप्ति के लिए श्री हरी विष्णु जी की आराधना करनी शुरू कर दी और एक स्तोत्र का जाप किया जिसे गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र कहा जाता है। गजेंद्र के स्तोत्र पाठ से खुश होकर विष्णु जी उस सरोवर पर आते हैं और अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह यानी की उस मगरमच्छ के सिर को काट देते हैं। अब आप जान चुके होंगे कि किस प्रकार से गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र और उसका अर्थ
श्रीमद्भागवतान्तर्गतगजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥
अर्थ: श्री शुकदेव जी ने कहा की बुद्धि के अनुसार पिछले अध्याय में वर्णन किये गए रीति से अपने मन को नियंत्रित कर और ह्रदय से स्थिर होकर वो गजेंद्र अपने पिछले जन्म में याद किये गए सर्वोच्च और बार-बार जाप करने किये जाने वाले निम्न स्तोत्र का जाप करने लगा।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
अर्थ: गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी का मनन करते हुए कहा कि, जिनके मात्र प्रवेश करने से ही शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन मनन करता हूँ।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
अर्थ: वो जिनके सहारे ही ये संपूर्ण संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें इस प्रकृति की रचना हुई है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, लेकिन इसके वाबजूद भी वो इस प्रकृति से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण लेता हूँ।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
अर्थ: अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले और इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी आप रक्षा करें।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।
अर्थ: बीतते समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परमकरूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेर और घोर अंडकार रूपेण प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित करते हैं, वो ईश्वर मेरी रक्षा करें।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
अर्थ: विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण जीव उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले देवता मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
अर्थ: अशक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों में आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि मुनि जन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों का विधिवत पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
अर्थ: वो जिनका हमारी भांति ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई काम होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना तो कोई नाम है और ना कोई रूप, इसके बावजूद भी वो समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
अर्थ: उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा नमन है। उस प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बार बार नमन है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
अर्थ: स्वयं प्रकाश और सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से भी परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमन।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
अर्थ: विवेक से परिपूर्ण पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से पूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रुपी प्रभु को मेरा नमन है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
अर्थ: अपने सभी गुणों को स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से पूर्ण ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमन है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
अर्थ: शरीर के इंद्रिय आदि के समुदाय रूप और सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमन। सभी के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन खुद बिना कारण प्रभु को मेरा शत शत नमन।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
अर्थ: सभी इन्द्रियों और उसके विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले देव आपको मेरा नमन।
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥
अर्थ: सबके कारण लेकिन खुद बिना कारण होने पर भी बिना किसी परिणाम होने की वजह से, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको मेरा बार बार नमन है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
अर्थ: वो जो त्रिगुण रूपो में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, उन गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की बाह्य वृति उत्पन्न हो उठती है और आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे महाज्ञानी महत्माओं में जो खुद प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे ईश्वर को मेरा नमन।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
अर्थ: मेरे जैसे शरणागत पशु के सामान जीवों की अविद्यारूप फांसी को हमेशा के लिए पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखने में कभी भी आलस ना करने वाले नित्य मुक्त प्रभु को मेरा नमन है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप में प्रकट रहने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमन।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
अर्थ: शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनता से मिलने वाले और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ ईश्वर को मेरा नमस्कार।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥
अर्थ: वो जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करने वाले लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं अपितु उन्हें विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस विपदा से हमेशा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥
अर्थ: वो जिनके एक से अधिक भक्त जो मुख्य रूप से एकमात्र उसी भगवान् के शरण में हैं। धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की लालसा नहीं रखते। जो केवल उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
अर्थ: उस अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी प्रकट होने पर भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति में हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
अर्थ: ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद और समस्त चर अचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचयित हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
अर्थ: जिस तरह से जल रहे अग्नि की लपटें और सूरज की किरणें हर बार निकलती हैं और फिर से अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी भांति बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर, ये सभी गुणों को प्राप्त शरीर जिस स्वयं प्रकाश परमात्मा से अवतरित होता है और फिर से उन्हें में लीं हो जाता है।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥
अर्थ: वो भगवान् जो ना तो देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य और ना ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। ना ही वो स्त्री हैं, ना पुरुष और ना ही नपुंसक और ना ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश हो। वो ना तो गुण हैं और ना कर्म, वो ना ही कार्य हैं और ना ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उद्धार करने के लिए आए।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
अर्थ: मैं अब इस मगरमच्छ के चंगुल से मुक्त होने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसकी वजह ये हैं की मैं सभी तरफ से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नहीं होता बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय होता है।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥
अर्थ: इस तरह से मोक्ष के लिए लालायित में संसार के रचियता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट लेकिन संसार से परे, संसार से एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल नमन करता हूँ और उनकी शरण में हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
अर्थ: वो जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में जिसे प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमन है।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
अर्थ: वो जिनके ती गुणे शक्तियों का राग रूप वेग असह्य है और जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में महसूस हो रहे हैं, तथापि वो जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही रची बसी रहती हैं। ऐसे लोगों को जिनका मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागत एवं अपार शक्तिशाली भगवान् आपको मेरा बारंबार नमन।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
अर्थ: वो जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए अपने रूप को ये जीव समझ नहीं पाता, ऐसे अपार महिमा वाले प्रभु की मैं शरण में हूँ।
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥
अर्थ: श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, वो जिसने पूर्व प्रकार से भगवान् के भेदरहित सभी निराकार स्वरूप का वर्णन किया था, उस गजराज के करीब जब ब्रह्मा और साथ ही अन्य कोई देवता नहीं आये जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् विष्णु जी, जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, वहां प्रकट हुए।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥
अर्थ: उस गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वो गज था।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥
अर्थ: सरोवर के अंदर महाबलशाली ग्राह द्वारा जकड़े और दुखी उस गज ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को देख अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहा “सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा प्रणाम “सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमन। “
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥
अर्थ: पीड़ित गज को देखकर श्री हरी भगवान विष्णु गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दयालु होकर ग्राह सहित उस गज को भी तुरंत ही सरोवर से बहार ले आये और देखते ही देखते अपने चक्र से ग्राह की गर्दन काट दी और गज को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र जाप के लाभ
ऐसी मान्यता है की श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति बड़े से बड़े कर्ज से मुक्ति पा सकता है। पौराणिक कथा गज और ग्राह की कहानी पर आधारित इस स्तोत्र को शुकदेव जी ने लिखा था। हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नियमित रूप से सूर्योदय के पूर्व उठकर स्नान ध्यान करने के बाद यदि इस स्तोत्र का जाप किया जाय तो इससे आपको जीवन में किसी भी प्रकार के कर्ज से मुक्ति मिल सकती है। कर्ज से मुक्ति पाने के लिए गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को सर्वाधिक फायदेमंद माना गया है। यदि भी किसी प्रकार के कर्ज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो इस स्तोत्र का जाप जरूर करें।