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आरोग्यता व आयुष को ‘धन’ मानकर पूजे महर्षि धन्वंतरि का अवतरण दिवस

Submitted by Shanidham

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस कहते हैं। इस दिन खरीददारी की जाती है और लक्ष्मी का विशेष रूप से पूजन कर आगामी समय में सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। एक सुखद संयोग यह भी है कि इस दिन आयुर्वेद के पितामह माने जाने वाले भगवान धन्वंतरि का जन्म दिन होता है, इसीलिए इस तिथि को उत्तम स्वास्थ्य की कामना के साथ भगवान धन्वंतरि का भी पूजन किया जाता है। यह सुखद संयोग है कि धन और स्वास्थ्य का आपस में गहरा संबंध हैं। उत्तम स्वास्थ्य न हो तो धन आता ही नहीं और यदि आ भी जाए तो टिक नहीं पाता। स्वास्थ्य को संभालने में ही धन का अधिकांश हिस्सा खर्च हो जाता है। संभवत: इसी कारण भारतीय परंपरा स्वास्थ्य को सर्वोत्तम धन मानती है। उत्तम सुख निरोगी काया का मुहावरा इसी कारण लोगों में प्रचलित है। भगवान धन्वंतरि देवताओं के चिकित्सक हैं और भगवान विष्णु के अवतारों में से एक माने जाते हैं। इस दिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता धन्वंतरि समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए वैद्य-हकीम और ब्राह्मण समाज इस शुभ तिथि पर धन्वंतरि भगवान का पूजन कर धन्वंतरि जयंती मनाता है। इस दिन लोग अपने घरों में नए बरतन खरीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि असली धन तो स्वास्थ्य है। ऐसी मान्यता है कि भगवान धन्वंतरि काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। इस तरह सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा था कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का अविष्कार किया था। सुश्रुत उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही निदान और चिकित्सा हैं। उन्होंने चिकित्सा के अलावा फसलों का भी गहन अध्ययन किया। पशु-पक्षियों के स्वभाव, उनके मांस के गुण-अवगुण और उनके भेद भी उन्हें ज्ञात थे। मानव की भोज्य सामग्री का जितना वैज्ञानिक व सांगोपांग विवेचन धन्वंतरि और सुश्रुत ने किया है, वह आज के युग में भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। धन्वंतरि जयंती के दिन धनतेरस का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
जान लीजिए परम्परा के पीछे की दिलचस्प कहानी
भले समाज कितना ही आधुनिक क्यों न हो जाए। कुछ धार्मिक परंपराएं अपने मूल रूप में आज भी कायम है। इन्हीं में से एक है धनतेरस। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन धन्वतरि त्रयोदशी मनाने की परंपरा है। दरअसल ये महर्षि धन्वन्तरि की जयंती का पर्व है। जो वक्त के साथ अपभ्रंश होते हुए धनतेरस बन गया। धन्वन्तरि को आयुर्वेद का जनक माना जाता है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि धन्वंतरि जन्म के समय हाथ में अमृत कलश लेकर पैदा हुए थे। इस अमृत कलश को मंगल कलश भी माना गया। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक खुद भगवान विश्वकर्मा ने धातु से बने अमृत कलश का निर्माण किया था। इसी चलते आज भी धनतेरस के दिन धातु के बर्तन खरीदने की परंपरा कायम है। हालांकि पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि धनतेरस के दिन धातु के बर्तन खरीदने की परंपरा कब से शुरू हुई। धनतेरस को लेकर किंवदंती भी है। कहते हैं देवताओं और असुरों के समुद्र मंथन के बाद धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। कहते हैं धन्वंतरि अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे। महर्षि धन्वंतरि को विष्णु का अवतार माना जाता है। परंपरा के मुताबिक धनतेरस की शाम को यम का दिया निकाला जाता है। यम को दिया दिखाकर यह प्रार्थना की जाती है कि वे घर में प्रवेश न करें। कहते हैं एक बार राजा हिम ने अपने पुत्र की कुंडली बनवाई। कुंडली के मुताबिक शादी के ठीक चौथे दिन राजा पुत्र को सांप डंस लेता और उसकी मौत हो जाती। शादी के बाद युवराज हिम की पत्नी को ये बात पता चली। तो उन्होंने हर हाल में यम से पति को बचाने की योजना बनाई। शादी के चौथे दिन युवराज के कमरे के बाहर पत्नी से सभी जेवर जेवरात रख दिए और रात भर उसने पति को जगाए रखा। कहते हैं सांप के रूप में डंसने के लिए यमराज आए तो वे आभूषणों के ढेर को पार नहीं कर सके। इस तरह युवराज की जान बच गई। तभी से लोग सुख-समृद्धि और लंबी आयु के लिए यम की पूजा करने लगे। साथ ही आभूषणों की भी खरीदारी करने लगे। वक्त के साथ धनतेरस को आभूषणों और बर्तनों से जोड़ दिया गया। हालांकि आर्थिक क्षमता के मुताबिक लोग खरीदारी करते हैं। देशभर में धनतेरस को लेकर करोड़ों का कारोबार होता है। समस्त भारत भूखंड के प्रत्येक कोने में दीपावली के दो दिन पूर्व हम समस्त भारतवासी धनतेरस पर्व को किसी न किसी रूप में मनाते हैं। यह महापर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन भारत में ही नहीं, अपितु सारे विश्व में वैद्य समाज द्वारा भगवान धन्वन्तरि की पूजा-अर्चना कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर मनाया जाता है तथा उनसे यह प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त विश्व को निरोग कर समग्र मानव समाज को रोग विहीन कर उन्हें दीर्घायुष्य प्रदान करें। दूसरी ओर समस्त नर-नारी उनकी स्मृति में धन्वन्तरि त्रयोदशी को नए बर्तन, आभूषण आदि खरीद कर उन्हें शुभ एवं मांगलिक मानकर उनकी पूजा करते हैं। उनके मन में यह एक दृढ़ धारणा तथा विश्वास रहता है कि वह वर्तन तथा आभूषण हमें श्रीवृद्धि के साथ धन-धान्य से संपन्न रखेगा तथा कभी रिक्तता का आभास नहीं होगा।
भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। इनकी चौबीस अवतारों के अंतर्गत गणना होने के कारण भक्तजन भगवान विष्णु का अवतार, श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के समान पूजा करते हैं। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में रामायण-महाभारत तथा विविध पुराणों की रचना हुई है, जिसमें सभी ग्रंथों ने आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देव और अतुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंशवृद्ध अधिक हो गई थी अत: अधिकारों के लिए परस्पर लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे जो संजीवनी विद्या के बल से असुरों का जीवित कर लेते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य दानव मांसाहारी होने के कारण हृष्ट.पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अत: युद्ध में देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुरा:।
हेन्यामान्यास्ततो देवा: शतशोऽथसहस्त्रश:।
गरुण और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार यह कथानक मिलता है कि गालव ऋषि वन में भटकते हुए बहुत थक गए और प्यास से व्याकुल हो गए। उस समय जंगल में बाहर निकलने पर उन्हें एक कन्या दिखाई दी जो एक घड़े में जल लिए बाहर जा रही थी। उस कन्या ने उन्हें प्यास से तृप्त करने के लिए पूरा घड़ा दे दिया जिससे प्रसन्न होकर गालव ऋषि ने आशीर्वाद दिया कि तुम योग्य पुत्र की मां बनो। किंतु जब उसने सूचित किया कि वह कुमारी वीरभद्रा नामक वेश्या है, तब उसे वह ऋषि आश्रम में ले गए। वहां कुश की पुष्पाकृति आदि बनाकर उसके गोद में रख दी और अभिमंत्रित कर प्रतिष्ठित कर दी वही धन्वन्तरि कहलाए। वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए।
विष्णु पुराण के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशीराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे।
ब्रह्मण पुराण के अनुसार यह कथा मिलती है कि काशी के राजवंश में धन्व नाम के राजा ने अज्ज देवता की उपासना की और उन्हें प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि हे भगवन, आप हमारे घर पुत्र रूप में अवतीर्ण हों। उन्होंने उनकी उपासना से संतुष्ट होकर उनके मनोरथ को पूरा किया, जो संभवत: यही देवोदास हुए और धन्व पुत्र तथा धन्वन्तरि अवतार होने के कारण धन्वन्तरि कहलाए। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है। समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम। धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय। काशीराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय।
इस तरह भगवान धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट मिलता है। जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, कश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उद्धत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।