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श्राद्ध क्या है? यह क्यों किया जाता है?

Submitted by Shanidham

श्रद्धया यत् क्रियते तत्
भाद्र्रपद महीनें की पूर्णिमा एवं आश्विन के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन, श्राद्धपक्ष अथवा महालय पक्ष कहलाते हैं। ये दिन पूर्वजों और ऋषि-मुनियों के स्मरण वाले दिन माने जाते हैं। श्राद्ध यानी श्रद्धया यत् क्रियते तत्। श्रद्धा से जो किया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं। 
जिन पितरों ने और पूर्वजों ने हमारे कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किया, रक्त को पानी की तरह बहाया, उन सबका श्रद्धा से स्मरण करना चाहिए और वे जिस योनि में हों, उस योनि में उन्हें दु:ख न हो, सुख और शांति प्राप्त हो, इसलिए पिंडदान और तर्पण करना चाहिए। 
तर्पण करने का अर्थ है तृप्त करना, संतुष्ट करना। जिन विचारों को संतुष्ट करने के लिए, जिस धर्म और संस्कृति के लिए उन्होंने अर्पित किया हो उन विचारों, धर्म और संस्कृति को टिकाए रखने का हम प्रयत्न करें, तो वे जरूर तृप्त होंगे। 
रोज देव, पितर तथा ऋषियों की तृप्ति होती रहे, ऐसा जीवन जीना चाहिए और वर्ष में एक दिन जिन पितरों को, ऋषियों को हमने माना है, मैं उनके श्राद्ध के निमित अपने जीवन का आत्मपरीक्षण करना चाहिए। हम कितने आगे बढ़ें और कहाँ भूले थे, उसका तटस्थ होकर विचार करना चाहिए। 
श्राद्ध परंपरा को टिकाता है, सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखता है। हमें पितरों का कृतज्ञ भाव से पूजन करके इन दिनों में कृत्य-कृत्य होना चाहिए। 
मानव जीवन विविध ऋणों से मुक्ति के लिए मिला है। हम पर देवों और ऋषियों तथा पितरों का ऋण है। इन नि:स्वार्थी कर्मयोगियों के ऋण से मुक्त होने के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए, इसका इन पंद्रह दिनों में विचार करना होता है। 
श्राद्ध का प्रारंभ ऋषि तर्पण से होता है जिसमें पितरों से पहले ऋषियों का तर्पण किया जाता है क्योंकि भारतीय संस्कृति की महानता, भव्यता, दिव्यता, इन ऋषियों की आभारी है। भारत की आज भी विश्व में जो मान्यता है उसका कारण हमारे पूर्वज हैं। 
जो ऋषि स्वयं तप कर लोगों के जीवन में प्रकाश बिखेरे समाज उनका विशेष रूप से ऋणी है। ऋषियों का ऋण अदा करने के लिए उनके विचारों का प्रचार करना चाहिए, उनकी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए उसका प्रचार करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण और उनकी संतुष्टि के लिए किया जाने वाला कृत्य श्राद्ध है।
श्राद्ध क्या है? यह क्यों किया जाता है?
श्राद्ध में श्रद्धा का सम्पूर्ण अंश जुड़ा हुआ है। वस्तुत: श्राद्ध उस कर्मकांड को कहते हैं जो श्रद्धा से किया जाता है। पितरों तथा मृत व्यक्तियों के लिए किया गया सम्पूर्ण कार्य श्राद्ध की श्रेणी में आता है। श्राद्ध पितरों की तृप्ति के लिए शास्त्र विधि से किया गया एक धार्मिक कृत्य है। शास्त्रों में मनुष्यों के लिए तीन ऋण बताए गए हैं जो देवऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण कहलाते हैं। 
कर्मकांड मार्गप्रदीप में उल्लिखित है कि पितृ ऋण और पितृव्रत पूर्ण करने के लिए पूरे श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण और विशेष तिथि को श्राद्ध करने से पितृ ऋण समाप्त हो जाता है। पूरे पक्ष में ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है। 
श्राद्ध पक्ष कब से कब तक होता है?
शास्त्रों में आश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियाँ श्राद्ध पक्ष में शुमार की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राद्ध एक दिन भी आ जाते हैं। अनादिकाल में आश्विन मास के श्राद्ध पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का दिन श्राद्ध शामिल नहीं था। 
चूंकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमा आती है। इसलिए आश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राद्ध पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जो पूर्वज पूर्णिमा को दिवंगत हुए हैं। उनकी तिथि की कृष्ण पक्ष वाले श्राद्ध पक्ष में कोई व्यवस्था नही है। सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राद्ध की व्यवस्था है। इसलिए भाद्रपद मास की पूर्णिमा को भी श्राद्ध पक्ष में शामिल कर लिया गया। 
कैसे और किसके लिए किया जाता है श्राद्ध?
श्राद्ध पक्ष में पितरों से श्रद्धायुक्त हृदय से यह प्रार्थना की जानी चाहिए कि वे अपने वंशजों के करीब आएँ। आत्मिक स्वरूप होते हुए भी पितर आसन ग्रहण करें, हमारी पूजा स्वीकार करें और हमारे अपराधों को क्षमा करें। पके हुए चावलों का या आटे का गोला श्राद्ध में पितरों को अर्पित किया जाता है। 
इसमें तीन पीढिय़ों को पिंडदान किया जाता है- पितृ, पितामह और प्रपितामह। ऐसी मान्यता है कि मंत्र शक्ति से पितरों तक वंशजों की यह प्रार्थना पहुँच जाती है। मंत्रों का उच्चारण, गोत्र उच्चारण के साथ करने से पितृ प्रार्थना स्वीकार करते हैं। श्रवण नक्षत्र में पितरों का श्राद्ध करने वाले मनुष्य का गृहकलह तुरंत नष्ट हो जाता है। 
श्राद्ध कितने प्रकार के होते हैं?
भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन किया गया है। विष्णु पुराण और गरुड़ पुराण में भी श्राद्ध सम्बंधी संदर्भ है। पहला, नित्य श्राद्ध है जो प्रतिदिन किया जाता है। प्रतिदिन की क्रिया को ही नित्य कहते है। दूसरा नैमित्तिक श्राद्ध है जो एक पितृ के उद्देश्य से किया जाता है उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। तीसरा काम्य श्राद्ध है जो किसी कामना या सिद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाता है। चौथा पार्वण श्राद्ध है जो अमावस्या के विधान के अनुरूप किया जाता है। पाँचवी तरह का श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध कहलाता है। इसमें वृद्धि की कामना रहती है, जैसे संतान प्राप्ति या परिवार में विवाह आदि का। 
छठा श्राद्ध सपिंडन कहलाता है इसमें प्रेत व पितरों के मिलन की इच्छा रहती है। ऐसी भी भावना रहती है कि प्रेत, पितरों की आत्माओं के साथ सहयोग का रुख रखें। सात से बाहरवें प्रकार के श्राद्ध की प्रक्रिया सामान्य श्राद्ध जैसी ही होती। इसलिए इनका अलग से नामकरण गोष्ठी, प्रेत श्राद्ध, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्ट्यर्थ किया गया है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के निमित दो यज्ञ किए जाते हैं जो पिष्ठपितृ यज्ञ तथा श्राद्ध कहलाते हैं। 
96 अवसरों पर श्राद्ध किया जाता है, ये हैं - 12 अमावस्याएँ, 4 युगादि तिथियाँ, 14 मन्वादि तिथियाँ, 12 सूर्य संक्रातियाँ, 12 वैधृति योग, 12 व्यतीपात योग, 15 महालय श्राद्ध, 5 अष्टका श्राद्ध, 5 अनुष्टका श्राद्ध और शेष पाँच प्रकार के श्राद्ध जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, पार्वण व वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसके बारे में पहले ही बता दिया गया है।  
श्राद्ध करने का अधिकार किसको है?
शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध का अधिकार केवल पुत्र को ही हो सकता हैं। पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही है। पुत्र के अभाव में विधवा को अपने पति का श्राद्ध करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राद्ध करने योग्य माना गया है। व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राद्ध का अधिकार दिया गया है। श्राद्ध करने की प्रथा पूर्वजों की पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु ही श्राद्ध व तर्पण किया जाता है। 
श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित घर में क्या कर्म करना चाहिए?
यदि किसी कारणवश हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नालिखित सरल एवं संक्षिप्त श्राद्ध कर्म घर पर ही अवश्य कर लें - 
श्राद्ध के दिनों में खीर बनाकर तैयार कर लें। गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें। उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें। इसके पास में ही जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें। इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें। भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें। इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएं, फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें। पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें। 
श्राद्ध करने का क्या फल श्राद्धकर्ता को प्राप्त होता है?
श्राद्ध करने से हम पितृ ऋण से मुक्त हो जाते हैं। विधिवत श्राद्ध पूर्ण करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और हमें आशीर्वाद देते हैं। 
यदि किसी दिवंगत आत्मा की शांति अथवा स्मृति में दान का विचार हो तो अवश्य करना चाहिए।
श्राद्घ से क्या लाभ है?
श्राद्घ श्रद्घा से किया जाने वाला विशेष कर्म है जो कि पितरों की संतुष्टि के लिए किया जाता है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने माना है कि संसार में इससे बढक़र कोई कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। 
कूर्मपुराण में कहा गया है कि जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर अपने पितरों का श्राद्घ करता है, वह सुख पूर्वक जीवन बिताते हुए जन्म मरण की बाधाओं से मुक्त हो जाता है। 
गरुण पुराण के  अनुसार - श्रद्घा पूर्वक किए गए श्राद्घ कर्म से पितरों को संतुष्टि मिलती है और वे हमारे लिए आयु, पुत्र, कीर्ति, दृष्टि, बल, वैभवसुख धन-धान्य प्रदान करते हैं। 
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार - श्राद्ध से तृप्त हो कर पितृ गण श्राद्घ करने वाले को दीर्घआयु, सन्तति, धन, विद्या, सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्मपुराण के अनुसार - जो व्यक्ति शाक द्वारा भी श्राद्घ श्रद्घा भक्ति से करता है उसके कुल में कोई भी दुखी नहीं होता।  उसके अनुसार श्रद्घा व विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्घ में पितरों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं बूंद पशु-पक्षी जल नभ में कहीं भी विराजमान पितरों को तृप्त करती है जिससे प्रसन्न होकर वे परम कल्याण की कामना करते हैं।   
कहा गया है कि बाल्यावस्था में मरा हुआ व्यक्ति सम्मार्जन के जल से तृप्त होता है। 
इसके  महत्व को देखें तो कहा जाता है कि श्रद्घा के साथ इस दौरान भोजन करने से पहले पैर धोने तथा भोजन के बाद आचमन करने से ही परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। 
विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्रद्घा युक्त होकर श्राद्घ कर्म करने से पितृ गण ही तृप्त नहीं होते बल्कि ब्रह्मा, इंद्र , रुद्र , दोनों अश्विनी कुमार, अष्टवसु, वायु, विश्वदेव, ऋषि, मनुष्य पशु पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त हो जाते हैं। 
इसलिए पुत्र को चाहिए की भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ कर अश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक 16 दिन तर्पण और उनकी मृत्यु तिथि को श्राद्घ अवश्य करें। 
पितृ पक्ष में कौवों को महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है और उन्हें भोजन का पहला ग्रास क्यों दिया जाता है?
भाद्रपद मास की पूर्णिमा से अश्विन कृष्णपक्ष की अमावस्या तक यानी लगभग 16 दिनों तक हर घर में कौए की तलाश होती है। ये 16 दिन श्राद्घ पक्ष के दिन माने जाते हैं। कौवा पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौवे का खाना एवं पीपल को पानी पिला कर पितरों को तृप्त किया जाता है। कौवे को पितृ का प्रतीक क्यों माना जाता है फिलहाल यह अभी शोध का विषय बना हुआ है।  
गौर करें तो श्राद्घ के दौरान पिण्ड दान के साथ ही अन्न ग्रास किया जाता है। जिसमें पितरों के नाम पर हवन करने तथा ब्राह्मणों को खाना खिलाने के साथ ही कौवा, कुत्ता, मछली तथा गाय को अन्न दिया जाता है। वैसे तो इसका व्यावहारिक कारण अपनी कमाई का कुछ हिस्सा बांटना है जो कि पितरों के नाम पर हम बांटते हंै या खिलाते हैं। लेकिन इसके आध्यात्मिक पहलू को देखें तो माना जाता है कि यदि पितरों को मुक्ति नहीं मिली है तो वे किसी न किसी रूप में विचरण करते रहते हैं। इस दौरान पितरों के नाम पर ही ब्राह्मण, कुत्ता, कौवा, गाय तथा मछली को खाना खिलाया जाता है। कहा जाता है कि श्राद्घ के दिन इन्हें खाना खिलाने से यह सीधे पितरों को मिलता है और बदले में वे हमारे कल्याण की कामना करते हैं। यहां खास बात यह है कि 16 दिन तक पानी से पितरों का तर्पण करने के बाद केवल मृत्यु तिथि को ही खाना खिलाया जाता है। 
सबकी अपनी अपनी विशेषता है - ब्राह्मण को पूज्य माना जाता है, इसलिए उन्हें खाना खिलाया जाता है। कौवा दीर्घायु पक्षी माना जाता है कहा जाता है कि यदि दुर्घटना न हो तो वह 200 से 250 साल तक जीता है, उसे पितरों के नाम पर खाना खिलाने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है। मछली जल की रानी मानी जाती है उसको खाना देने से जहां जल में समाहित पितरों को उसका कुछ हिस्सा मिलता है वहीं उसका एक दिन का खाना उसे मिल जाता है जो शुभाशीष देती है तथा पितृ भी संतुष्ट होते हैं। गाय हमारे यहां पूज्य है। उनको खाना देने से परम कल्याण की प्राप्ति होती है तथा कुत्ता सजग प्रहरी होता है उसे भी इसी लिए खाना दिया जाता है कि वह सदैव हमारी रक्षा करता रहे, पहरा देता रहे। आप कह सकते हैं कि आखिर मात्र श्राद्घ में ही यह सब क्यों किया जाता है तो इसका बड़ा, सरल जवाब व मान्यता यही है कि अनेक कारणों से मृत प्राय हुए हमारे पितृ गण इस 15 दिन के पक्ष में इन्हीं रूपों में हमारे यहां आते हैं। इसीलिए हम इनको पितृ स्वरूप मान कर खाना खिलाते हैं। कहा जाता है कि इस दौरान श्राद्घ करने से मनुष्य पितृ ऋण से मुक्ति पा जाता है। 
पितृदोष निवारण के उपाय
पितृदोष होने पर प्रत्येक माह की अमावस्या को एवं श्राद्ध पक्ष में श्रद्धापूर्वक पितरों का पूजन तर्पण आदि करें। पितरों से अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगें एवं दोष दूर करने के लिए प्रार्थना करें। गया में पिंडदान किया जाए एवं रुद्राभिषेक किया जाए, तो इस दोष का निवारण हो जाता है। श्रीमद्भागवत सप्ताह का आयोजन यदि किया जाए एवं भागवत पाठ से पूर्व विधिवत पितृ देवताओं का आवाहन कर उनसे भागवत पाठ सुनने का निवेदन किया जाए, तो भी इस पाठ के प्रभाव से पितृदोष दूर हो जाता है और पितृगणों को प्रेत योनि से छुटकारा मिल जाता है।
लग्रानुसार भी उपाय किए जा सकते हैं जो इस प्रकार हैं।
मेष:- पीपल पर सुबह जल चढ़ाएं व सायं दीप जलाएं।
वृष:- नव दुर्गा पूजन करें व कन्याओं को खीर खिलाएं।
मिथुन:- किसी गरीब कन्या के विवाह या बीमारी में मदद करें।
कर्क:- दूध या उड़द के बने पदार्थ दान दें।
सिंह:- अन्न या शय्या दान करें।
कन्या:- शिव पूजन या गीता पाठ करें।
तुला:- सिंदूर, तिल, तेल व उड़द का दान दें।
वृश्चिक:- कमल पुष्प व गुग्गल की आहुति देकर हवन करें।
धनु:- कुल देवता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
मकर:- रुद्र पूजन या शिव महिमा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
कुंभ:- पितृ तर्पण व गीता पाठ करें।
मीन:- गणेश या हनुमान या भैरव का पाठ करें।
श्राद्घ के लिए विशेष बातें
श्राद्धकर्ता को श्राद्ध पक्ष में पान खाना, शरीर पर तेल लगाना, दूसरे के यहाँ भोजन करना, लोहे के पात्र का प्रयोग करना, यहाँ तक की स्टील का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए, दौने या पत्तलोंं का प्रयोग करना चाहिए। 
श्राद्ध में श्रीखण्ड, कपूर, सफेद चन्दन का प्रयोग उत्तम माना जाता है। 
कस्तुरी, रक्त चंदन, गोरोचन, इत्यादि की गंध का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
कदम्ब, केवडा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल एवं काले रंग के पुष्प तेज गन्ध वाले पुष्प एवं गन्ध रहित पुष्पों का प्रयोग श्राद्ध में निषिद्ध है। 
श्राद्ध करने के लिए कृष्णपक्ष एवं अपराह्न को श्रेष्ठ माना जाता है। 
चतुर्दशी को श्राद्ध नहीं करना चाहिए, लेकिन जो पितर युद्ध में या शादि से मारे गए हों, उनके लिए चतुर्दशी का श्राद्ध करना शुभ रहता है। 
दिन का आठवाँ मुहूत्र्त काल कुतप कहलाता है। इस समय में सूर्य का ताप घटने लगता है। उस समय में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है। 
मध्याह्न काल, खंगपात्र, नेपालकम्बल, चाँदी, कुश, तिल गौ एवं दौहित्र ये आठों भी कुतप के नाम से जाने जाते हैं अर्थात श्राद्ध में प्रयोग करने पर शुभ फलदायी होते हैं।
श्राद्धकाल में मन एवं तन को बाहर एवं भीतर से पवित्र रखना चाहिए, क्रोध एवं जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। श्राद्ध का स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ मन आसानी से एकाग्र हो सके। 
क्या है पितृ दोष
पितृ शब्द के दो अर्थ होते हैं, पहला पिता एवं दूसरा हमारे पूर्वज, या सूक्ष्म देहचारी पितृगण। बृहत्पराशर, सारावली, ज्योतिष रत्नाकर, एवं लाल किताब इत्यादि में दोनों ही अर्थों के संदर्भ में इस दोष का वर्णन किया गया है। मैं सूक्ष्म देहधारी पितृगणों के संदर्भ में कहे गए पितृदोष का वर्णन कर रहा हूँ।
भारतीय धर्म शास्त्रों में नागलोक, गंधर्व लोक आदि अनेक लोकों का वर्णन किया गया है, इन्हीं में से एक लोक है पितृलोक। पितृलोक में पितृगणों का निवास होता है। इस लोक में रहने वाले पितृगण मोक्ष की अवस्था में नहीं रहते हैं, अपितु अपने परिजनों के प्रति उनका मोह बना रहता है। जो गृहस्थ अपने पितृगणों की प्रसन्नता के लिए नियमित तर्पण, श्राद्धादि कर्म करते हैं, उनके पितृगण बलवान रहते हैं एवं स्वयं सामथ्र्यवान होकर अपने कुल के लिए शुभफल प्रदान करते है। श्राद्ध तर्पण करने वाले अपने कुल के जनों का पूरा ध्यान रखते हैं और उन्हें आयु, आरोग्य एवं ऐश्वर्य सभी प्रदान करते हैं। लेकिन जो व्यक्ति अपने पितरों को श्राद्ध, तर्पण आदि प्रदान नहीं करते है, उनके पितृगण कमजोर हो जाते हैं और प्रेतादि निम्न योनियों में भटकते रहते हैं। इस अवस्था में वे अपने कुल के लोगों से रुष्ट होकर उनके प्रत्येक कार्य में बाधा डालते हैं। ऐसी स्थिति में तर्पण श्राद्ध आदि न करने वाले जातकों को गरीबी, दुर्घटना, पारिवारिक कलह, विवाह, संतान, नौकरी आदि में बाधाएं एवं ऐसे ही अनेक अशुभ फल भुगतने पड़ते हैं। इसी स्थिति को पितृदोष के नाम से जाना जाता है। 
जन्मकुंडली में पितृ दोष
नवग्रहों में गुरु ग्रह हमारे मृतक परिजनों या पितृगणों का परिचायक होता है। जन्म कुंडली में गुरु पीडि़त हो, निर्बल हो एवं राहु से दृष्ट हो या युति संबंध बना रहा हो, तो पितृदोष की पुष्टि होती है। 
ज्योतिष में नवग्रहों को आधार मानकर पूर्व जन्म एवं वर्तमान जन्म के बारे में भविष्यवाणी करते हैं। नवग्रहों में बृहस्पति आकाश तत्त्व तो शनि वायु तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है जबकि राहू चुंबकीय क्षेत्र का सूर्य का पिता का, चंद्र माता का, शुक्र पत्नी का और मंगल भाई का प्रतिनिधितव करता है। राहु एक छाया ग्रह है और प्रेतात्माएं भी छाया रूप में ही विद्यमान रहती है। अत: कुंडली में राहु की स्थिति किसी दोष का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण है। यदि राहू सूर्य के साथ युति करें तो सूर्य को ग्रहण लगेगा। ऐसे में सूर्य के पिता का कारक होने के कारण पितृ दोष होता है। सूर्य व चंद्र के साथ राहू की युति भी पितृ दोष का निर्माण करती है।
पितृ दोष शमन के अन्य उपाय
घर के प्रत्येक आयोजन में पूर्वजों को याद कर अपनी क्षमता के अनुसार भोजन व वस्त्र आदि का दान करना।
शनिवार को पीपल के वृक्ष पर जल दे कर दीपक प्रज्वलित करना।
अमावस्या को दान करना। दान पदार्थ - सफेद वस्त्र, दही, मूली, रेवड़ी व दक्षिणा।
दक्षिण दिशा की तरफ पैर करके न सोना।
श्राद्घ पक्ष में विधिपूर्वक श्राद्घ करना।
घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर पूर्वजों का फोटो लगाना।
घर के बड़ों के चरण नित्य स्पर्श करना।
इन उपायों के अतिरिक्त नारायण नागबली के पूजन का विधान भी है। कोई भी व्यक्ति यदि अपनी क्षमता के अनुसार पूर्वजों के प्रति श्रद्घा व सेवा भाव रखें तो उसके पितर निश्चित रूप से तृप्त होते हैं और उसे सुख-समृद्घि व कुल वृद्घि का आशीर्वाद देते हैं।